संत समुदाय और अखाड़ों में जातिवाद का बीजारोपण सनातन धर्म के लिए घातक – अखिल भारतीय पुजारी महासंघ का अखाड़ा परिषद अध्यक्ष को पत्र

उज्जैन।(स्वदेश mp न्यूज़… राजेश सिंह भदौरिया बंटी) राजनीति में धर्म होता है लेकिन धर्म में राजनीति नहीं होना चाहिए। यदि संतों को राजनीति करनी है तो अपने भगवा चोले को त्याग देना चाहिए। वर्तमान में संतों को जैन समाज के संतो से धर्म की परायणता सीखने की बहुत आवश्यकता हैं।
जैन संत कभी भी किसी वर्ग या राजनीति की बात नहीं करते हैं वह केवल अपने जैनत्व को आगे बढ़ाने की बात करते हैं। आद्य शंकराचार्य ने देश में धर्म, संस्कृति, सभ्यता और परंपरा का ज्ञान दिया। जिसमें किसी प्रकार के सामाजिक बंधन, छुआ छूत या भेदभाव नहीं किया गया और पिछले कई दशकों से सनातन धर्म को मानने वाले अनुयायियों ने भी किसी साधु संत से उसकी जात नहीं पूछी। केवल उनके ज्ञान को माना है तो फिर आज साधु संतों में एससी, एसटी और दलित साधुओं के नाम पर राजनीति कर उनके मान सम्मान को ठेस क्यों पहुंचाई जा रही हैं। इस विषय का एक पत्र अखिल भारतीय पुजारी महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष महेश पुजारी एवं सचिव रूपेश मेहता ने अखाड़ा परिषद अध्यक्ष रविन्द्रपुरी महाराज को भेजकर यह जानना चाहा है कि अखाड़ा परिषद 100 एसएसी एसटी और दलित साधुओं को महामंडलेश्वर बनायेगा। इसकी बड़ी प्रसन्नता हुई लेकिन मन में चिंता और दुख भी हुआ की यदि साधुओं में भी एससी, एसटी और दलित के नाम का जातिवाद होने लगेगा तो देश में साधु संतों का जो मान सम्मान है वह कम होगा। क्योंकि जब किसी भी वर्ग का व्यक्ति साधु बनता है तो वह अपना स्वयं का पिंडदान कर देता है वह अपने परिवार और समाज के लिए मर चुका होता हैं। उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता हैं। उसकी कोई जाति या वर्ण नहीं होता उसके लिए सभी समान होते हैं तो फिर साधुओं में एससी एसटी और दलित क्यों? अखाड़ा परिषद अध्यक्ष से यह भी जानना चाहा कि क्या अखाड़ों में इस वर्ग के लोग नहीं है? इसका पता लगाना चाहिए और अखाड़ों के जितने भी महामंडलेश्वर है उनकी जातिगत आधार पर सूची हिंदू समाज के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। जिससे हिन्दू समाज को आपके द्वारा किए जा रहे सामाजिक उत्थान के कार्य में संशय नहीं हो। क्योंकि वर्तमान में उज्जैन के एक सम्मानीय संत को भारत सरकार द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनित किया हैं। वह वाल्मीकि समुदाय से आते हैं और ऐसा भी पता चला है कि चारधाम मंदिर के महामंडलेश्वर प्रजापत कुम्हार समाज से आते हैं ऐसे और भी कई संत है जो सभी समाजों से आते हैं। संत समुदाय में तो पहले से ही समरसता हैं तो आज जातिवाद का नया बीजारोपण क्यों? यह सनातन धर्म संस्कृति के लिए घातक हैं। यदि अखाड़ा परिषद जिन्हें भी महामंडलेश्वर बनायेगा तो क्या उनके नाम के आगे उपनाम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एससी, एसटी या दलित लिखेंगे। साथ ही यह भी जानना चाहा कि यदि 100 महामंडलेश्वर नियुक्त होने के बाद इनके द्वारा आपसे अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष पद की मांग की जाती है तो क्या सामाजिक समरसता और समभाव के लिए आप अपने अध्यक्ष पद का त्याग करेंगे? यह सनातन धर्म को मानने वाले अनुयाइयों को स्पष्ट करे और साधु संतों में एससी एसटी और दलित और अन्य समुदाय का जातीय वर्गीकरण कर उनका अपमान नहीं करें।