विशेष एनआईए जज एके लाहोटी ने 1000 पेज से ज्यादा लंबे फैसले में स्पष्ट किया कि इस तर्क में कोई ठोस आधार नहीं है. यह दलील आरोपी सुधाकर द्विवेदी के वकील ने अदालत में रखी थी. इसमें महबूब मुजावर के पुराने बयानों का हवाला दिया गया था. बचाव पक्ष ने दावा किया था कि राजनीतिक दबाव में भगवा आतंकवाद का नैरेटिव गढ़ने के लिए भागवत को निशाने पर लेने की कोशिश की गई थी.
महबूब मुजावर ने आरोप लगाया था कि उन्हें एटीएस के वरिष्ठ अधिकारियों ने मोहन भागवत की गिरफ्तारी का आदेश दिया था. गुरुवार को भी उन्होंने अपनी यह बात दोहराई कि उस समय का मकसद यह साबित करना था कि भगवा आतंकवाद है. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि इस आदेश का पालन करने से उन्होंने मना कर दिया था, क्योंकि जांच में भागवत की संलिप्तता का कोई सबूत नहीं मिला.
कोर्ट ने इन बयानों को बेमानी ठहराया. अपने आदेश में न्यायाधीश लाहोटी ने बचाव पक्ष की उस दलील को खारिज कर दिया, जो तत्कालीन जांच अधिकारी एसीपी मोहन कुलकर्णी के बयान पर आधारित थी. कुलकर्णी ने साफ किया था कि मुजावर को आरएसएस के किसी भी सदस्य की गिरफ्तारी का कोई आदेश नहीं दिया गया था. उन्हें केवल फरार आरोपियों रामजी कलसांगरा और संदीप डांगे का पता लगाने के लिए लगाया गया था.
कोर्ट का यह फैसला न केवल इस मामले की कानूनी दिशा तय करता है, बल्कि उस लंबे समय से चल रहे विवाद को भी खत्म करता है, जिसमें आरएसएस प्रमुख का नाम जोड़ा गया था. मालेगांव ब्लास्ट केस में सात आरोपियों की रिहाई और इस दावे के खारिज होने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि भगवा आतंकवाद का नैरेटिव अदालत की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका.